top of page
Search
Writer's pictureNivedita Shukla

अरे हिन्दू! तू है कौन?

पूछा है ये सवाल,

एक नहीं कई बार.

कभी चुपके से शब्दों के छलावे में,

कभी तरेरती आँखों के उजाले में.

मैंने भी सोचा,

हाँ,कौन हूँ मैं?

बस वही न

जो माथे पर टीका,

पैरों में बिछिया,

और मांग में सिन्दूर लगाते हैं?

थोड़े ज़्यादा हाथ पैर वाले,

अजीब से दिखने वाले,

भगवानों के पैरों पर,

अपना माथा टिकाते हैं?

सदियों से मुझे ख़त्म करने की साजिश रची जा रही है,

मेरेअस्तित्व और विश्वास को,

ढोंगऔर पाप बोलने की,

आदत होती जा रही है.

अजीब जंगली हूँ मैं,

पिछड़े, गंवारऔर हिंसक हूँ मै.

मैंने भी सोचा,

सही तो कह रहे हैं सब.

दुनिया वाले कहाँ पहुंच गए,

हम अपने इष्ट में फसे रह गए |

ख़त्म भी हो गए,

तो क्या बिगड़ जाएगा?

कोई डायनासोर थोड़ी हैं,

जो उद्भेद रुक जाएगा |

पर ज्यों ही मैंने सर उठाया,

अपनीआखों को हर तरफ घुमाया,

सोचा,दिया तो था

अपने लव-कुश का अफ़ग़ानिस्तान

दे तो दिया, काट के पाकिस्तान

जिस बांग्लादेश में मेरी गंगा मैंय्या गयीं,

जो लंका रावण की थी,

थे तो सब मेरे ही.

क्यों नहीं उनको स्वर्ग बना दिया?

दुनिया में अपना वर्चस्व बना लिया?

क्यों कटोरा लिए घुमते हो?

क्यों मुझे ख़त्म करने का दम भरा करते हो?

मैंने तुमको गले लगाया,

तुम्हारेअस्तित्व का उत्सव मनाया |

सोचा, तुमसे कुछ सीखेंगे,

अपना कुछ तुमको दे के

गहरी मैत्री बनाएंगे |

पर तुमने तो मुझे धोखा दिया,

अपनी तलवार से मेरा विश्वास रेत दिया |

कामियाँ मैंने तुमको अपनी बतायीं,

और तुमने, उनको उछाल कर

मुझे और बाँट दिया?

“मैं-मैं” की रट लगा कर,

तुमने मुझे हरा दिया |

कभी डराया, कभी मारा, कभी ज़िंदा जला दिया |

हम फिर भी अपना धर्म लिए,

तुम्हारा कहा मानते गए.

जला दिए मेरे धरोहर,

तोड़ दिए मेरे देवालय,

हम चुप-चाप देखते गए |

कोशिश तुमने बहुत की,

पर खुद से मुझको मिटा न पाए,

आज भी तुम त्यौहार पे धूपबत्ती जलाते हो,

आज भी तुम गले में मंगलसूत्र डालते हो |

तुम और मैं, एक ही हैं,

बस खुद को याद नहीं दिलाते हो |

कोई बात नहीं, जो हुआ, हो जाता है,

भय इंसान से बहुत कुछ करवाता है |

पर अब तुम किस्से डरते हो?

जिसको सदियों से मारा गया,

उसे हत्यारा कहते हो?

अत्याचार मुझपे भी हुआ,

पर हम तो डरे नहीं |

न होते अगर राणा कुम्भा,

अहोम ने न तोड़े होते दाँत,

न जोड़ा होता राणा सांघा ने

दुश्मन के खिलाफ हाथ |

गर न होते राजा विद्याधर,

चन्देलों के वो शूर,

न होते गर राजा काबुल और जाबुल के,

जो बने रहे दुश्मन के शूल |

तो आज न यहाँ पर हम होते,

न होती हमारी माता,

न होते वो मंदिर,

जो सुनाते हमारी स्वर्ण गाथा |

उनके बलिदानों को कैसे व्यर्थ जाने दूँ?

भारत को दूसरा मिस्र कैसे बन जाने दूँ?

अगर बात सिर्फ मेरी होती,

तो घुल जाना कोई बड़ी बात नहीं थी |

पर तुम भी जानो

और अब,

मैं भी जानूं,

की मैं बस मैं नहीं,

मैं वो सोच हूँ,

जो लोगों के मन में बसती है,

जो दुःख में हाथ पकड़ती है,

कोई मुझे माने न माने,

कहीं न कहीं छू लेती है |

उसी को तुम ख़त्म करना चाहते हो,

मेरा नाम-ओ -निशाँ मिटा देना चाहते हो |

पर जान लो,

मैं वो ज़िद्दी अंश हूँ

जो धुलने से धुलता नहीं |

जहाँ हाताशा मिले,

सर झुका के चल देते हैं,

विद्या के दम पर,

देश-विदेश में खुशबु की तरह फैल जाते हैं,

दूसरों का,

और उनकी धरा का सम्मान कर,

अपनी जगह बना लेते हैं |

हम हिन्दू हैं,

सबसे प्रेम कर लेते हैं|

हम भविष्य हैं,

इसी बात से तुम डरते हो,

द्वेष, कष्ट और युद्ध का उपाए हैं,

उसी से तुम बचते हो |

हम उस माँ की संतान हैं,

जिसने हर तरह के शिशु जने,

कुछमेरे जैसे प्रेमी हैं,

कुछ तेरे जैसे विश्वासघाती|

अपनी माँ को तेरे भरोसे नहीं छोड़ कर जाएंगे,

आज जगे हैं,

सबको चैतन्य कर के जाएंगे.

-निवेदिता ‘रामेंदु’ शुक्ला

125 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


Post: Blog2_Post
bottom of page